Wednesday, March 27, 2019

गुजरात दंगों ने किया सबसे अधिक बदनाम

चार महीने बाद ही मोदी के नेतृत्व की पहली परीक्षा तब हुई जब गोधरा में अयोध्या से लौट रहे कार सेवकों के डिब्बे में आग लगा दी गई, जिसमें 58 लोग मारे गए.
दूसरे दिन विश्व हिंदू परिषद ने पूरे राज्य में बंद का आह्वाहन कर दिया. हिंदू मुस्लिम दंगे हुए और उसमें 2000 से अधिक लोगों की जान गई.
मोदी पर हालात पर क़ाबू करने के लिए तुरंत क़दम न उठाने के आरोप लगे.
मोदी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक बहुत ही विवादास्पद बयान दिया, "हर क्रिया पर बराबर और उसके विपरीत प्रतिक्रिया होती है."
एक दिन बाद उन्होंने एक टेलीविज़न चैनल को दिए एक दूसरे इंटरव्यू में दोहराया, "क्रिया और प्रतिक्रिया की 'चेन' चल रही है. हम चाहते हैं कि न क्रिया हो और न प्रतिक्रिया."
कुछ दिनों बाद उन्होंने दंगा पीड़ित शिविरों में रहने वाले मुसलमानों पर एक और असंवेदनशील टिप्पणी की. उन्होंने कहा, "हम पाँच, हमारे पच्चीस."
बाद में उन्होंने एक इंटरव्यू में स्पष्टीकरण दिया कि वो सहायता शिविरों में रहने वाले लोगों की नहीं बल्कि देश की जनसंख्या समस्या का ज़िक्र कर रहे थे.
सालों बाद जब एक पत्रकार ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान सचिव रहे ब्रजेश मिश्रा से पूछा कि वाजपेयी ने मोदी को गुजरात दंगों के लिए बर्ख़ास्त क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था, "वाजपेयी चाहते थे कि मोदी इस्तीफ़ा दें, लेकिन वो सरकार के प्रमुख थे, पार्टी के नहीं. पार्टी नहीं चाहती थी कि मोदी जाएं. वाजपेयी को पार्टी की राय के आगे झुकना पड़ा. बीजेपी कांग्रेस की तरह नहीं थी और न ही आज है."
एक बार जब मौलाना सैयद इमाम ने उन्हें पहनने के लिए एक जालीदार टोपी दी तो उन्होंने उसे ये कहते हुए पहनने से इनकार कर दिया कि टोपी पहनने से कोई 'सेकुलर' नहीं बनता! ये अलग बात है कि 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने सिख पगड़ी सहित कई तरह की टोपियाँ पहनीं.
गुजरात के मुख्यमंत्री वाले दिनों में अपने चुनावी भाषणों के दौरान जिन पर उन्हें हमला करना होता था, उनके नाम के आगे वो अक्सर मुस्लिम विशेषण जैसे 'मिय़ाँ मुशर्रफ़' और 'मियाँ अहमद पटेल' लगाते थे.
साल 2014 के चुनाव के दौरान जब उन्होंने राहुल गाँधी का उपहास किया तो उन्होंने उसके लिए उर्दू शब्द 'शहज़ादे' का सहारा लिया, जब कि वो बहुत आसानी से 'राज कुमार' शब्द का प्रयोग कर सकते थे.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली पार्टी बनी जिसने एक भी चुने हुए मुस्लिम सांसद के बिना केंद्र में सरकार बनाई.
बाद में मोदी मंत्रिमंडल में जो तीन मुस्लिम मंत्री लिए गए, उनमें से एक भी लोकसभा का सदस्य नहीं था.
गुजरात दंगों से खराब हुई छवि को नरेंद्र मोदी ने साफ़ करने की कोशिश की अपने मुख्यमंत्रित्व काल में हुए गुजरात के आर्थिक विकास को 'शो केस' करके.
इसको 'गुजरात मॉडल' का नाम दिया गया, जिसमें निजी क्षेत्र को बढ़ावा, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बेहतर प्रबंधन और 10 फ़ीसदी की प्रभावशाली विकास दर हासिल की गई.
वर्ष 2008 में जब पश्चिम बंगाल में सिंगूर में टाटा मोटर्स का संयंत्र लगाने के खिलाफ़ आंदोलन चला तो मोदी ने तुरंत आगे बढ़ कर कंपनी को न सिर्फ़ गुजरात में संयंत्र लगाने की दावत दी, बल्कि उन्हें भूमि, कर छूट और दूसरी सुविधाएं भी उपलब्ध कराईं.
रतन टाटा इससे इतने खुश हुए कि उन्होंने मोदी की तारीफ़ के पुल बांध दिए. लेकिन इस गुजरात मॉडल की कई हलकों में आलोचना भी हुई.
मशहूर पत्रकार रूतम वोरा ने हिंदू में छपे एक लेख में बताया, कि 'वाइब्रेंट गुजरात' के आठ संस्करणों में 84 लाख करोड़ के निवेश समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, लेकिन इनमें से अधिकतर को पूरा नहीं किया गया.
"प्रति व्यक्ति आय के मापदंड पर गुजरात का भारत में पाँचवा स्थान ज़रूर था, लेकिन नरेंद्र मोदी के उदय से पहले भी गुजरात की गिनती भारत के चुनिंदा विकसित राज्यों में होती थी."

Thursday, March 7, 2019

ماهي القيود التي تضمن العدل عند تعدد الزوجات؟

وبعد مرور 25 عام على تغيير موعد الاحتفال برأس السنة، تقدمت البلدة بطلب لحكومة إقليم الأندلس للاعتراف رسميا بيوم الاحتفال البديل كمهرجان محلي للجذب السياحي.
ويقول باديلا غيرفيلا: "استطعنا أن نحول الحادث السلبي إلى أمر إيجابي عاد علينا بفوائد جمة، ويتوافد الزوار الآن على البلدة من جميع أنحاء العالم".
ويقول كاستيلو سانشيز: "تنتشر حفلات الشوارع في كل مكان في إسبانيا، لكن حفل رأس السنة في أغسطس/آب، لن تصادفه إلا في بلدة بيرتشوليس".
لم يكن الإمام الأكبر أحمد الطيب، شيخ الأزهر، يتوقع أن تثير تصريحاته، على القناة الفضائية المصرية الرسمية، حول موضوع تعدد الزوجات جدلا ولغطا داخل مصر وخارجها، وأن يتم تفسيرها بطرق شتى اضطرت المركز الإعلامي للأزهر إلى إصدار بيان توضيحي لدلالات كلام الشيخ أحمد الطيب.
ففي برنامجه التلفزيوني الأسبوعي قال شيخ الأزهر إن مسألة تعدد الزوجات في الدين الإسلامي تحمل "ظلما للمرأة وللأبناء في كثير من الأحيان، وتعد من الأمور التي شهدت تشويها للفهم الصحيح للقرآن الكريم والسنة النبوية". وأضاف "من يقولون إن الأصل في الزواج هو التعدد مخطئون، فالأصل في القرآن هو (قوله تعالى): فإن خِفتُم ألا تعدلوا فواحدة".
وتساءل الطيب: "هل المسلم حر في أن يتزوج على زوجته؟ أم أن هذه الحرية مقيدة بقيود واشتراطات؟ فالتعدد حق مقيد، ويمكن أن نقول إنه رخصة، والرخصة لا بد لها من سبب... التعدد مشروط بالعدل وإذا لم يوجد العدل فالتعدد محرم بل إن الظلم أو الضرر يحرم التعدد".
وما أن انتهت حصة شيخ الأزهر على شاشة التلفزيون حتى بدأت تتوالى ردود الفعل المتباينة عليها في المواقع الالكترونية وشبكات التواصل الاجتماعي، بين من يراها إنصافا مستحقا للمرأة المسلمة وتصويبا لفهم خاطئ للنص القرآني، وبين من يعترض على تصريحات شيخ الأزهر بقوة ويعتبرها إنكارا لنص ديني صريح يبيح للرجل الزواج بأربع نساء.
وفي اليوم التالي اضطر الشيخ أحمد الطيب إلى إصدار بيان، عبر المركز الإعلامي للأزهر، أكد فيه أن تصريحاته "اقتطعت من سياقها وأنه لا يمكن أن يتحدث بكلام يناقض النصوص القرآنية أو السنة النبوية".
وجاء في البيان أن شيخ الأزهر لم يتطرق مطلقا إلى تحريم أو حظر تعدد الزوجات. وذكر بموقفه كما عبر عنه في مؤتمر الإفتاء العالمي في أكتوبر/تشرين الأول عام 2016 عندما قال: "أبادر بالقول بأنني لا أدعو إلى تشريعات تلغي حق التعدد، بل أرفض أي تشريع يصدم أو يهدم تشريعات القرآن الكريم أو السنة المطهرة، أو يمسهما من قريب أو بعيد؛ وذلك كي أقطع الطريق على المزايدين والمتصيدين كلمة هنا أو هناك، يقطعونها عن سياقها؛ ليتربحوا بها ويتكسبوا من ورائها".
وأوضح بيان الأزهر أن حديث شيخ الأزهر في البرنامج التلفزيوني ركز على معالجة "فوضى التعدد وتفسير الآية الكريمة المتعلقة بالموضوع، وكيف أنها تقيد هذا التعدد بالعدل بين الزوجات".
ورحبت ناشطات مصريات في مجال الدفاع عن حقوق المرأة بتصريحات الشيخ أحمد الطيب، وطالبن الحكومة والبرلمان بإعادة النظر في التشريعات التي تحكم قضايا الزواج والطلاق والخلع ورؤية الأطفال وحضانتهم، المعروضة أمام المحاكم المصرية، والتي يعود تاريخ سريان مفعول بعضها الى نحو قرن مضى.
وتثير قضية تعدد الزوجات حساسية كبرى في المجتمعات العربية الاسلامية. ففيما يرى التيار العلماني أن أسباب اللجوء الى التعدد - الذي وضع حسبما يرى البعض لمعالجة اختلال عددي بين الذكور والإناث في فترة محددة من تاريخ المجتمعات الاسلامية - انتفت الآن، يرى التيار المحافظ أن تعدد الزوجات وضع بنص قرآني، وبالتالي لا ينبغي منعه أو حظره، ولكن يرى كثير من الفقهاء أن هناك قيودا على هذا الحق لضمان العدل بين الزوجات، كما أن الزوجة الأولى من حقها أن تقبل الاستمرار في العلاقة مع زوجها اذا تزوج باخرى، ومن حقها أن تطلب الطلاق.
وتظل تونس الدولة العربية الاسلامية الوحيدة التي ذهبت الى منع تعدد الزوجات بالنص القانوني في عهد الرئيس الراحل الحبيب بورقيبة عام 1958. ورغم مطالب إلغائه بعد ثورة 2011 لا يزال القانون ساري المفعول ويعاقب بالسجن كل من يخالفه. كما أن تعدد الزوجات محظور أيضا في تركيا.
وفي المغرب تم ضبط تعدد الزوجات بشروط بموجب تعديلات أدرجت على مدونة الأسرة عام 2004. ووضعت شروط لقبول التعدد بينها توفر القدرة المالية لإعالة أسرتين أو أكثر للراغب في التعدد، ووجود مبرر موضوعي لطلب الإذن بالتعدد، وضرورة تبليغ الزوجة الأولى بنية التعدد والحصول على موافقتها.
وأثبتت إحصائيات حكومية أن نسبة زواج التعدد لم تتجاوز نسبة 0.34% من مجموع الزيجات ما بين عامي 2004 و2013. كما سجل خلال الفترة ارتفاع في نسبة رفض طلبات الإذن بالتعدد.
لماذا يثر الحديث عن تعدد الزوجات جدلا واسعا في المجتمعات الإسلامية؟
ما هي برأيكم دلالات تصريحات شيخ الأزهر حول ظاهرة تعدد الزوجات؟
هل ترون وجاهة رأي من اعترضوا على تصريحاته؟
هل تحتاج ظاهرة تعدد الزوجات الى قوانين وضعية لضبطها حفاظا على حقوق المرأة المسلمة؟
ما هي القيود الواجب فرضها على تعدد الزوجات؟ ومن يطبقها؟
سنناقش معكم هذه المحاور وغيرها في حلقة الأربعاء 6 آذار/مارس من برنامج نقطة حوار الساعة 16:06 جرينتش.
خطوط الاتصال تفتح قبل نصف ساعة من البرنامج على الرقم  .
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